निजी स्कूल-कॉलेजों को तरजीह देने वाले मां-बाप के लिए स्कूली शिक्षा का खर्च उठाना पहले से ही भारी पड़ रहा था, अब तकनीकी व प्रबंधन स्तर की उच्च शिक्षा भी फीस के मामले में बहुत कीमती होती जा रही है। हाल में, आईआईटी की स्थायी समिति ने छात्रों की फीस में 200 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी की सिफारिश की है। उधर, भारतीय प्रबंधन संस्थान-कलकत्ता (आईआईएम-सी) ने भी अपने दो वर्षीय पाठ्यक्रम की फीस करीब 16 प्रतिशत बढ़ा दी है। छात्रों के लिए क्वॉलिटी और आधारभूत ढांचा बनाए रखने के लिए शिक्षण संस्थानों द्वारा फीस बढ़ाने को जायज ठहराने की कोशिश हो सकती है, पर विदेशी शिक्षा के बराबर खर्च पहुंचा देने वाले संस्थान क्या यह गारंटी भी लेने को तैयार हैं कि उनके यहां विदेश स्तर की शिक्षा और डिग्री के बाद ऊंची नौकरी भी मिलेगी? असल में शिक्षा के हर पायदान पर मौजूद तंत्र अब उस मध्य वर्ग के आर्थिक शोषण पर उतर आया है जो अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा-डिग्री दिलाने का प्रयास कर रहा है। देश के उभरते मध्यवर्गीय परिवारों की मानसिकता अब यह है कि परिवार व बच्चों की सेहत और शिक्षा के मामले में कोई समझौता नहीं होना चाहिए। पर मध्यवर्गीय परिवारों की यह कोशिश शिक्षण संस्थानों के बढ़ते लालच के कारण उन्हें कर्ज के गर्त में पहुंचाने लगी है। अफसोस कि हमारी सरकार इस मोर्चे पर खामोश बैठी है और उसने अभिभावकों को शिक्षा के ठेकेदारों के हाथों लुटने के लिए असहाय छोड़ दिया है। स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च तकनीकी और प्रबंधन शिक्षण संस्थानों ने फीस बढ़ाने के लिए अपने-अपने तर्क जुटा लिए हैं, जो अभिभावकों के गले भले ही न उतरें लेकिन बच्चों के भविष्य को देखते हुए वे उनके खिलाफ कुछ नहीं कर सकते। इस संबंध में हाल के उदाहरणों पर नजर दौड़ाएं तो पहला मामला आईआईटी का है। आईआईटी की स्थायी समिति ने फीस बढ़ोतरी की जो सिफारिश की है, अगर उसे जस का तस मान लिया जाता है तो फीस 90,000 रुपये से बढ़कर तीन लाख रुपये सालाना हो जाएगी। आईआईटी प्रबंधन का इस संबंध में तर्क है कि जहां तक हो सके, आईआईटी को अपना खर्च खुद निकालना चाहिए। फीस तीन लाख रुपये सालाना हो जाने पर आईआईटी का लगभग 60 प्रतिशत खर्च फीस से ही निकल आएगा। समिति साथ में यह भी कहती है कि आईआईटी छात्रों को फीस के लिए बैंकों से कर्ज और वजीफे की इतनी व्यवस्था हो जाएगी कि आर्थिक वजहों से किसी गरीब छात्र को आईआईटी की पढ़ाई से वंचित नहीं रहना पड़ेगा। हालांकि फीस बढ़ाने का आखिरी फैसला मानव संसाधन विकास मंत्रालय को करना है, पर जो तर्क शिक्षण संस्थानों की तरफ से दिए जा रहे हैं, उनके दबाव में फीस बढ़ोतरी तय लग रही है। शिक्षा के बाजारीकरण का ही असर है कि देश के ज्यादातर शिक्षण संस्थानों का मकसद ज्यादा से ज्यादा धन खींचना हो गया है। इंजीनियरिंग, मेडिकल और प्रबंधन संस्थानों में पहले तो छात्रों को प्रवेश पाने की जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है, उसके बाद उनके अभिभावकों की परीक्षा शुरू होती है। अभिभावकों को अपने बच्चों की शिक्षा के लिए मोटी रकम का इंतजाम करना पड़ता है। अगर अभिभावक ऐसा नहीं कर पाते हैं तो छात्रों को इसके लिए प्रेरित किया जाता है कि वे बैंक से शिक्षा के लिए कर्ज लें। बेचारे छात्र समझ ही नहीं पाते हैं कि वे कर्ज लें, आगे पढऩे के लिए या पहले कमाएं। इस बारे में अकसर विदेशों के उदाहरण दिए जाते हैं कि वहां शिक्षा सस्ती नहीं है। शिक्षा की महंगाई की वजह वहां यह है कि वहां मिली डिग्रियां बेहतरीन रोजगार दिलाने और छात्र का वास्तविक मानसिक विकास करने में सहायक होती हैं। क्या स्तर की फिक्र किए बगैर हमारे देश की सरकार को भी शिक्षा महंगी होते हुए देखना चाहिए। वैसे आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में कोई भी सरकार आर्थिक नुकसान उठाकर उच्च शिक्षा या तकनीकी शिक्षा को बेहद सस्ता करने का जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। इसलिए वह न तो खुद शिक्षा के मामले में एक व्यापारी की तरह काम कर सकती है और न ही आम जनता की कीमत पर निजी क्षेत्र के चंद लोगों को शिक्षा को व्यापार बनाने की छूट दे सकती है। ध्यान रखना होगा कि शिक्षा के मामले में जिस अमेरिका की मिसालें दी जाती हैं, वहां के सरकारी स्कूलों का स्तर निजी स्कूलों जैसा ही होता है। ऐसे में समाज के प्रतिष्ठित और अमीर लोगों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। बेशक, विकसित देशों के मुकाबले भारत की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों और खासतौर से देश की बड़ी आबादी को देखते हुए शिक्षा व स्वास्थ्य के विदेशी मॉडल हूबहू यहां लागू करना संभव नहीं है, पर बुनियादी सुविधा माने जाने वाली इन चीजों को पूरी तरह बाजार या निजी हाथों में सौंपना भी उचित नहीं है। इस प्रसंग में यह सवाल अरसे से उठता रहा है कि आखिर आईआईएम या आईआईटी में पढ़ाई का पूरा खर्च आम नागरिक क्यों उठाए? मोटे तौर पर आईआईटी के एक छात्र की पढ़ाई पर सालाना पांच लाख रुपये का खर्च होता है। इसमें फीस, हॉस्टल का खर्च और खाना-पीना सभी शामिल है। मौजूदा व्यवस्था के मुताबिक इस खर्च का सिर्फ 20 प्रतिशत ही छात्रों से बतौर फीस लिया जाता है। शेष 80 प्रतिशत की भरपाई सरकार करती है। इस नजरिये से फीस में बढ़ोतरी जायज मानी जा सकती है। चूंकि आईआईएम और आईआईटी के छात्रों को बेहतर नौकरियां अमूमन मिल ही जाती हैं, इसलिए यह सलाह दी जाती है कि इसके लिए अगर बैंक से कर्ज लेना पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। ऐसे में यह बात सही लगती है कि ऐसी उच्च शिक्षा का खर्च सरकार क्यों उठाए, जिसमें अच्छे करियर और आमदनी की गारंटी हो। इससे तो बेहतर है कि सरकार अपने साधन बुनियादी स्तर की शिक्षा के ढांचे को मजबूत बनाने में लगाए। लेकिन जिस सवाल पर सरकार और शिक्षा शास्त्रियों को विचार करना चाहिए, वह यह है कि अगर कोई छात्र शिक्षा के लिए इतना खर्च करेगा या कर्ज लेगा, तो उसकी यह मजबूरी होगी कि वह ऊंची कमाई वाले रोजगार को ही चुने। भारत जैसे देश में, जहां उसके प्रतिभावान व उच्च शिक्षित नौजवानों के अपने देश के गरीब व वंचित तबकों के लिए काम करने की जरूरत है, वहां शिक्षा का ऐसा व्यवसायीकरण किसी भी किस्म के आदर्शवाद को खत्म कर देगा। जो छात्र इंजीनियर या डॉक्टर बनने के लिए 40-50 लाख रुपये खर्च करेगा, उससे यह उम्मीद करना बेकार है कि वह बांधों और पुलों के निर्माण में ईमानदारी से काम करेगा या डॉक्टर बनने वाला युवा कम खर्च में गरीबों का इलाज करेगा।सरकार को चाहिए कि आईआईटी या आईआईएम जैसे शिक्षण संस्थानों की फीस बढ़ोतरी के लिए बीच का रास्ता निकाले। जो अभिभावक बच्चों को विदेश भेजकर उच्च शिक्षा दिलवा सकते हैं, उनसे बढ़ी हुई फीस ली जा सकती है, पर इसे बाध्यकारी न बनाया जाए। यह भी ध्यान में रखें कि बुनियादी शिक्षा सरकार की प्राथमिकता में होने के बावजूद भारत उन देशों में है जो अपनी जीडीपी का न्यूनतम हिस्सा शिक्षा पर खर्च करता है। कई विकासशील देशों में भी भारत का नंबर बहुत नीचे यानी 143वां है। अगर भविष्य की ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में हमें आगे बढऩा है, तो शिक्षा पर खर्च बढ़ाना होगा। जबकि सच यह है कि शिक्षा में सरकार की भागीदारी लगातार घटी है। साथ ही उसे यह पहल भी करनी होगी कि शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक लगाते हुए इन शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनाए।
लगातार महंगी होती शिक्षा