किसी महापुरुष के बारे में बताने, लिखने और व्याख्यान देने का केवल यह मतलब नहीं होता कि आम लोगों को उसके बारे में जानकारी मिल सके।
बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर की 125वीं वर्षगांठ को न केवल दलित मना रहे हैं बल्कि पूरी भारत सरकार भी मना रही है और तरह-तरह के आयोजन कर रही है। देश के सामने चुनौती यह है कि अंबेडकर को समझा जाए। यह चुनौती सबसे अधिक खुद दलितों के समक्ष है। अप्रैल 1956 में आगरा में अंबेडकर ने भावुक होकर कहा था की पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया और वे पेट पूजन में लग गए। उन्हें सबसे अधिक उम्मीद बौद्धिक वर्ग से थी कि वह समाज का दिशा-निर्देशन करेगा। आज यह तथाकथित बौद्धिक वर्ग आलोचक बन कर रह गया है। वह कहता रहता है कि देश में यह नहीं हो रहा वह नहीं हो रहा। उसे गिरेबान में झांक करके देखना चाहिए। वह पाएगा कि अंबेडकर के संघर्ष को आगे बढ़ाने में सबसे अधिक रोड़ा खुद उसने अटकाया है। सुरक्षा, सम्मान और आराम की दृष्टि से सरकारी नौकरी सबसे ज्यादा आकर्षक है। पढ़े-लिखे अनुसूचित जाति और जनजाति, दोनों करीब-करीब शत प्रतिशत सरकारी नौकरी में चले गए। 1990 के दशक तक निजी क्षेत्र में नौकरियों के अवसर कम थे। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण एवं निजीकरण हुआ वहां भी अवसर पैदा होने लगे। इस तरह से दलित समाज की बौद्धिक पूंजी सरकारी नौकरी में समावेश होती रही। बाबा साहब का अंतिम उद्देश्य जातिविहीन समाज की स्थापना करने का था।1 दलित समुदाय के बौद्धिक तबके से हिसाब-किताब लिया जाना चाहिए कि क्या उसने आपस में रोटी-बेटी का संबंध स्थापित किया? अंबेडकर के समय में भी दलित सैकड़ों जतियों में बंटा था और आज भी वही हालत है। पढ़ा-लिखा दलित तबका भी जाति की दीवार को ढहा नहीं सका है। पढ़ा-लिखा दलित वर्ग यह चाहता है कि तथाकथित सवर्ण जातियां अपने स्वभाव को छोड़ दें, लेकिन सवाल यह है कि वह खुद ऐसा कितना कर पा रहा है? यह स्वाभाविक है कि कोई अपना फायदा आसानी से त्यागता नहीं। सवर्ण अपनी सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत में मिले फ़ायदों को क्यों आसानी से छोड़ देंगे, लेकिन शायद जिस दिन दलित अपने घाटे को छोडऩे को तैयार हो जाएगा तो सवर्ण भी अपने फायदे को छोडऩे लगेंगे। सामाजिक व्यवस्था में दलित नीचे पायदान पर हैं, जिससे हर तरह से हानि ही है। जब वे जाति की दीवार तोड़ेंगे तो पाने को बहुत कुछ है और खोने को कुछ नही। इससे एकता पैदा होगी और सवर्ण भी मजबूर हो जाएंगे अपने स्वभाव को छोडऩे के लिए। अंबेडकर ने संगठित होने के लिए अत्यधिक जोर दिया था। दलित बौद्धिक वर्ग इस नारे को दहाड़-दहाड़ कर कर लगाता है, लेकिन सबसे कम संगठित वह खुद ही है। 1यह एक तथ्य है कि महाराष्ट्र में दलित चेतना सबसे अधिक है, लेकिन सबसे अधिक असंगठित वे ही हैं। उत्तर भारत में कुछ दलितों ने तो एकजुट होकर दिखा दिया, जबकि वे पढ़े-लिखे भी कम हंै और सामाजिक चेतना भी उस स्तर की नही है। क्या यह समझना मुश्किल है कि किसने अंबेडकर को असफल किया? दलित बौद्धिक तबके के लोगों में मान-सम्मान की भूख इतनी बढ़ गई है कि कई बार लोग दो हैं तो संगठन तीन। मान-सम्मान इंसान की दिमागी खुराक है, लेकिन वह अहंकार के रूप में परिवर्तित नहीं होनी चाहिए। बौद्धिक वर्ग अहंकार के संकट से गुजर रहा है। ऐसा भी नहीं है कि वह मानसिक गुलामी से आज़ाद हो गया हो। यही व्यक्ति जब दूसरे समूह में होते हैं तो उनके व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। होना यह चाहिए कि वे अपने दबे-कुचलों के प्रति ज्यादा सहनशील और उदार हों। शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो के उद्देश्य पर इतना ज्यादा बोला जाता है कि चाहे और बातों की जानकारी न हो, लेकिन इस नारे से अधिकतर लोग परिचित हंै। संघर्ष शब्द का आशय बहुत बड़ा है। जब संघर्ष करने की बारी आती है तो उसमें सहनशीलता, साहस और किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति निहित होती है। बौद्धिक वर्ग में सहनशीलता की कमी नजर आती है। दलित कर्मचारी और अधिकारी वर्ग यह तो जानता है कि आरक्षण किसने दिया लेकिन क्यों दिया, इसका बोध कुछ को ही है। जब नौकरी छोटी-मोटी मिलती है तो उसकी खुशी का ठिकाना नही रहता और जैसे-जैसे सुख-सुविधा बढ़ती है वह निराश होने लगता है। वह कदम-कदम पर अपनी ही समस्याओं के बोझ के तले दबा दिखता है। उसके स्वार्थीपन की वजह से ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है कि प्रशासन का अंग होने बावजूद उसके साथी, कनिष्ठ और वरिष्ठ मौका पाते ही हमला करने से चूकते नहीं। अगर अंबेडकर के मंत्र को आचरण में उतारें तो न तो कोई समाज से कटेगा और न ही उसके आत्मविश्वास में कोई कमी होगी। संकट के वक्त तमाम सहारा देने वाले भी मिल जाएंगे। पढ़े-लिखे दलित चाहते हंै बाबा साहब के मूल मंत्र को दूसरे समङों और उस पर आचरण करें, जबकि सबसे पहले उन्हें समझना होगा। संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत में दो दिन सामाजिक न्याय, अंबेडकर के योगदान और संविधान पर चर्चा रखी गई थी। इस दौरान व्यापक बहस हुई। इसके अलावा अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर का काम तेजी से आगे बढ़ा और लंदन में जिस मकान में रह कर वह पढ़े थे उसे खरीद करके स्मारक घोषित करने के लंबित काम को पूरा किया गया। इस तरह के तमाम आयोजनों से जो भी लोग अंबेडकर के विचारों से अवगत नहीं थे वे भी अवगत हो गए। प्रश्न यह है कि क्या सूचना या जानकारी प्राप्त करने मात्र से परिस्थितियां बदलेंगी? दलित समाज के बौद्धिक वर्ग को अंबेडकर को पढऩे की नहीं, बल्कि समझने और आचरण करने की जरूरत है।